सोमवार, 6 अक्तूबर 2014

आज का मनुज

आज से सदियों पहले ब्राह्मण जाति  का वर्चस्व था किन्तु आज तो केवल वैश्य जाति पूरे संसार में दिखाई देती है।  कोई मित्र सम्बन्धी नहीं ,बस व्यापार ही  हो रहा है। माता- पिता,भाई -बहिन, पति- पत्नी, पुत्र- पुत्री व् अन्य सभी रिश्ते एक स्वार्थ के सूत्र में पिरोये हुए हैं. मन की दृष्टि व्यापारियों की भांति हो गयी है । प्रेम की सुगन्धि लुप्त हो गयी है।  चारों ओर ईर्ष्या और द्वेष के कैकटस दिखाई पढ़ते हैं. जरा सी कमी-बेशी हो जाने पर एक दूसरे से लड़ाई -झगड़ा ,मुकदमेबाजी,हत्याएं आये दिन ख़बरों में सुनने को मिलती हैं. हर आदमी होड़ में एक  दूसरे को पीछे छोड़ कर आगे निकल जाना चाहता है. कहाँ तक दौड़ेगा यह उसे खुद को भी पता नहीं है. बस एक दिशाहीन रेडार की तरह। आज के मनुज ने कुछ भी निश्चित नहीं किया क़ि उसे  कितना धन -सम्पति ,कैसी कार , क्या नौकरी-पेशा   ,कैसा घर, कैसी बहू  इत्यादि चाहिए ,बस उसके पडोसी या परिचितों से अधिक बेहतर होनी चाहिए।  एक अंतहीन प्रतियोगिता /प्रतिद्वन्दिता की भावना लिए भागे चला जा रहा है बिना किसी की हानि की चिंता किये आज का मनुज।          

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