मंगलवार, 14 अक्तूबर 2014

प्रधानमंत्री मोदीजी के नाम पत्र

  आदरणीय प्रधानमंत्री जी,  
                   आपसे विनम्र निवेदन है कि स्वच्छ भारत अभियान के अंतरगत सभी भारतवासियों को मिटटी के दीयों में शुद्ध देसी घी से दीपावली मनाने का आहवान करें।  प्रति वर्ष  भारतीय  करोड़ो रुपये की  आतिशबाज़ी, पटाखे आदि जला कर राख़ करते हैं जिसके फलस्वरूप ध्वनि और वायु प्रदूषण के कारण प्रति वर्ष  बढ़ी संख्या में लोग जलने की, बहरे हो जाने, शवसन संबधी रोगों के कारण अस्पतालों में भर्ती होते हैं
         जिस प्रकार विकसित देशों में आवासीय क्षेत्रो में पटाखे जलाने पर रोक है और गैर-आवासीय  निर्धारित क्षेत्रो में  अग्रिम अनुमति  के पश्चात ही  एक सीमित मात्रा में पटाखे जला सकते हैं, इसी प्रकार भारत में भी कानून -व्यवस्था बनायी जाय ताकि लोगो को   स्वच्छ वातावरण में सांस लेने का सौभाग्य प्राप्त हो।
लोगो को अवगत कराना है कि स्वच्छता  सड़को तक सीमित न हो, हमारे मन वचन कर्म में भी दृष्टिगत होनी चाहिए।  हमारी बातचीत में गाली-गलौज का कोई स्थान नहीं होना चाहिये। निरर्थक  बातों में समय व्यर्थ न करके गीता के अनुसार कर्म को महत्व दिया जाना चाहिए। हमें निरंतर सृजनात्मक कार्यो में रूचि बढ़ानी चाहिए। द्वेष व् ईर्ष्या का  हमारे मन में कोई स्थान न हो और  वसुधैव कुटंबकम्  परस्पर प्रेम व् सहयोग से जीवनयापन करें

सोमवार, 6 अक्तूबर 2014

आज का मनुज

आज से सदियों पहले ब्राह्मण जाति  का वर्चस्व था किन्तु आज तो केवल वैश्य जाति पूरे संसार में दिखाई देती है।  कोई मित्र सम्बन्धी नहीं ,बस व्यापार ही  हो रहा है। माता- पिता,भाई -बहिन, पति- पत्नी, पुत्र- पुत्री व् अन्य सभी रिश्ते एक स्वार्थ के सूत्र में पिरोये हुए हैं. मन की दृष्टि व्यापारियों की भांति हो गयी है । प्रेम की सुगन्धि लुप्त हो गयी है।  चारों ओर ईर्ष्या और द्वेष के कैकटस दिखाई पढ़ते हैं. जरा सी कमी-बेशी हो जाने पर एक दूसरे से लड़ाई -झगड़ा ,मुकदमेबाजी,हत्याएं आये दिन ख़बरों में सुनने को मिलती हैं. हर आदमी होड़ में एक  दूसरे को पीछे छोड़ कर आगे निकल जाना चाहता है. कहाँ तक दौड़ेगा यह उसे खुद को भी पता नहीं है. बस एक दिशाहीन रेडार की तरह। आज के मनुज ने कुछ भी निश्चित नहीं किया क़ि उसे  कितना धन -सम्पति ,कैसी कार , क्या नौकरी-पेशा   ,कैसा घर, कैसी बहू  इत्यादि चाहिए ,बस उसके पडोसी या परिचितों से अधिक बेहतर होनी चाहिए।  एक अंतहीन प्रतियोगिता /प्रतिद्वन्दिता की भावना लिए भागे चला जा रहा है बिना किसी की हानि की चिंता किये आज का मनुज।